गुरुवार, 2 सितंबर 2010

प्रेम

नदियों सा निर्बाध बहता रहा प्रेम
धारा में पत्ते तो गिरे बहुत पर रुक  न सका प्रेम
बंट गयी शाखाए अनवरत रहा प्रेम
बस समंदर को ढूंढता बढ़ता ही रहा प्रेम

1 टिप्पणी:

  1. "नदियों सा निर्बाध बहता रहा प्रेम
    धारा में पत्ते तो गिरे बहुत पर रुक न सका प्रेम
    बंट गयी शाखाए अनवरत रहा प्रेम
    बस समंदर को ढूंढता बढ़ता ही रहा प्रेम"



    Waah... behatreen... likhte rahen zanab!..

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