रविवार, 26 सितंबर 2010

उसने कहा था की चाहत बहुत है
हम आमने सामने रहें न रहें
बस दिल से एक दीदार ही बहुत है
क्या हुआ जो मिल न सके इस दफा 
दिलों में हमारे जगह भी बहुत है
kunalnitish@gmail.com

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

प्रेम

नदियों सा निर्बाध बहता रहा प्रेम
धारा में पत्ते तो गिरे बहुत पर रुक  न सका प्रेम
बंट गयी शाखाए अनवरत रहा प्रेम
बस समंदर को ढूंढता बढ़ता ही रहा प्रेम

सोमवार, 23 अगस्त 2010

कहते हैं
आज भी जीवित है
बोधिवृक्ष
खड़ा है वैसे ही
सदियों के बाद भी
हम-तुम
रहेंगे-न रहेंगे
हमारा प्रेम रहेगा
बोधिवृक्ष की तरह।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

ढूंढ़ रहा हूँ खुद को खुद में

 वही शहर | वही लोग| फिर भी सब नया है | अनजाना सा | लगता है किसी को जानता ही नही| और ना ही मुझे कोई जानता | अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश लगातार कर रहा हूँ | वही पहचान जो यहीं कहीं गुम हो गयी थी | जिस मुकाम तक पहुचने की ख्वाहिश थी | कई तिनके जोड़ कर सफलता की  जिन सीढियों पर चढ़ा था | उसका स्वाद काफूर हो गया| फिर उसी जायके की ज़द्दोजहद में लगा हूँ | ढूंढ़ रहा हूँ उसे| सब कहते हैं थोडा सब्र करो| सब मिलेगा| उनकी सलाह और सांत्वना अच्छी लगती है | दिमाग कहता है वे ठीक कह रहे हैं| कुछ दिनों तो उनकी बातें याद रहतीं हैं | फिर दिल दिमाग पे हावी हो जाता है | सब एक झटके में वापस पाने को ललक उठता हूँ | बेचैनी सी होती है | पूरा शहर सो जाता है| आंखों से नींद ओझल हो जाती है | वो खाब जो खुली आँखों से देखे हैं बस उसे पूरे करने की योजनाओं में रात गुजर जाती है| फिर एक नई सुबह और फिर से खुद को ढूंढने की कवायदें|  इन्सान हूँ|  इंतजार कर सकता हूँ लेकिन लम्बा इंतजार नही| सब कुछ तेजी से पाने की इच्छा होती है | कहीं पढ़ा था कि कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती | कोशिश तो कर रहा हूँ| एक समंदर में बिना किसी लाइफ boat के सहारे खुद पे यकीं रखकर बस चला जा रहा हूँ| उस वक़्त की तलाश में जो कभी मुझसे हार जायेगा|
- कुणाल किशोर

निदा फाजली की ये लाइनें कितनी सही लगती हैं लाइफ में

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिटटी है खो जाये तो सोना है

बुधवार, 4 अगस्त 2010

सोमवार, 2 अगस्त 2010

गुलाबी चूड़ियाँ

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

- BABA NAGARJUNA

लज्जा

दौड़ है आधुनिकता की साडी में लज्जा आती है
जींस बुलाते आकर्षण साडी तो दूर भागती है
पिछड़ापन है गांवों मैं अगड़े तो शहर बसाते हैं
छोड़कर पिछली पीढ़ी को चौपाटी को जाते हैं
नैनों की नीलम घाटी जब रस घन से छा जाती है
कवी समर्पित हुए थे वो फिर भी लज्जा आ जाती है
दूध मलाई लस्सी से पिछड़ेपन की बू आती है
पेप्सी पिज्जा बर्गर से आधुनिकता आ जाती है

फूल किधर जाएगा

वो तो ख़ुश्बू है हवाओं में बिखर जाएगा
मसला फूल का है फूल किधर जाएगा
— परवीन शाकिर —

हाँ मैंने फूलों को हँसते हुए देखा है..

कोशी नही सरकारी लापरवाही की बाढ़