वही शहर | वही लोग| फिर भी सब नया है | अनजाना सा | लगता है किसी को जानता ही नही| और ना ही मुझे कोई जानता | अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश लगातार कर रहा हूँ | वही पहचान जो यहीं कहीं गुम हो गयी थी | जिस मुकाम तक पहुचने की ख्वाहिश थी | कई तिनके जोड़ कर सफलता की जिन सीढियों पर चढ़ा था | उसका स्वाद काफूर हो गया| फिर उसी जायके की ज़द्दोजहद में लगा हूँ | ढूंढ़ रहा हूँ उसे| सब कहते हैं थोडा सब्र करो| सब मिलेगा| उनकी सलाह और सांत्वना अच्छी लगती है | दिमाग कहता है वे ठीक कह रहे हैं| कुछ दिनों तो उनकी बातें याद रहतीं हैं | फिर दिल दिमाग पे हावी हो जाता है | सब एक झटके में वापस पाने को ललक उठता हूँ | बेचैनी सी होती है | पूरा शहर सो जाता है| आंखों से नींद ओझल हो जाती है | वो खाब जो खुली आँखों से देखे हैं बस उसे पूरे करने की योजनाओं में रात गुजर जाती है| फिर एक नई सुबह और फिर से खुद को ढूंढने की कवायदें| इन्सान हूँ| इंतजार कर सकता हूँ लेकिन लम्बा इंतजार नही| सब कुछ तेजी से पाने की इच्छा होती है | कहीं पढ़ा था कि कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती | कोशिश तो कर रहा हूँ| एक समंदर में बिना किसी लाइफ boat के सहारे खुद पे यकीं रखकर बस चला जा रहा हूँ| उस वक़्त की तलाश में जो कभी मुझसे हार जायेगा|
- कुणाल किशोर
क्या बात है... लिखने का तरीका ऐसा है मानो परदे पर कोई फिल्म चल रही है... लाजवाब!!
जवाब देंहटाएंशुभ भाव
रामकृष्ण गौतम
bro only say that excellent good imagination
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