गुरुवार, 5 अगस्त 2010

ढूंढ़ रहा हूँ खुद को खुद में

 वही शहर | वही लोग| फिर भी सब नया है | अनजाना सा | लगता है किसी को जानता ही नही| और ना ही मुझे कोई जानता | अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश लगातार कर रहा हूँ | वही पहचान जो यहीं कहीं गुम हो गयी थी | जिस मुकाम तक पहुचने की ख्वाहिश थी | कई तिनके जोड़ कर सफलता की  जिन सीढियों पर चढ़ा था | उसका स्वाद काफूर हो गया| फिर उसी जायके की ज़द्दोजहद में लगा हूँ | ढूंढ़ रहा हूँ उसे| सब कहते हैं थोडा सब्र करो| सब मिलेगा| उनकी सलाह और सांत्वना अच्छी लगती है | दिमाग कहता है वे ठीक कह रहे हैं| कुछ दिनों तो उनकी बातें याद रहतीं हैं | फिर दिल दिमाग पे हावी हो जाता है | सब एक झटके में वापस पाने को ललक उठता हूँ | बेचैनी सी होती है | पूरा शहर सो जाता है| आंखों से नींद ओझल हो जाती है | वो खाब जो खुली आँखों से देखे हैं बस उसे पूरे करने की योजनाओं में रात गुजर जाती है| फिर एक नई सुबह और फिर से खुद को ढूंढने की कवायदें|  इन्सान हूँ|  इंतजार कर सकता हूँ लेकिन लम्बा इंतजार नही| सब कुछ तेजी से पाने की इच्छा होती है | कहीं पढ़ा था कि कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती | कोशिश तो कर रहा हूँ| एक समंदर में बिना किसी लाइफ boat के सहारे खुद पे यकीं रखकर बस चला जा रहा हूँ| उस वक़्त की तलाश में जो कभी मुझसे हार जायेगा|
- कुणाल किशोर

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है... लिखने का तरीका ऐसा है मानो परदे पर कोई फिल्म चल रही है... लाजवाब!!


    शुभ भाव

    रामकृष्ण गौतम

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